September 26, 2012

ये किस पेड़ के पैसे से हो रहा छवि निर्माण --------------mangopeople



आज कल बड़े जोर शोर से सभी टीवी चैनलों पर भारत का निर्माण हो रहा है और इस निर्माण पर करोड़ो  रूपये खर्च कर रही है वो सरकार जो कहती है की उसके पास जनता को सब्सिडी देने के लिए पैसे नहीं है , अब कोई पुछे  की सरकार की छवि निर्माण के लिए किस पेड़ से पैसे आ रहे है ( उस पेड़ का नाम है आम जानता की जेब ), शायद राजनीति में सबक लेने की परम्परा नहीं है यदि होती तो मौजूदा सरकार पूर्व में इण्डिया शाइनिंग का हाल देख कर ये कदम नहीं उठाती | बचपन में नागरिक शास्त्र की किताब में पढ़ा था की किसी देश की सरकार का काम बस लोगों से टैक्स वसूलना और खर्च करना नहीं होता है उसका काम ये भी है की अपने देश में रह रहे गरीब ,असहाय लोगों को हर संभव मदद भी करना और उनके लिए जीवन की प्राथमिक जरूरतों को पुरा करना  , सब्सिडी उसी के तहत आती है ताकि गरीब लोगों तक भी उन सुविधाओ को पहुँचाया जा सके जो उनके बस में नहीं है , सरकार ये काम देश से आंकड़े जुटा कर करती है  किन्तु जब सरकार के आकडे ही सही नहीं है तो वो ठीक से योजनाए कैसे बनाएगी ,  ३२ रु रोज कमाने  वाले को गरीब ना मानने वाली सरकार भला गरीबो के लिए क्या करेगी | विश्व बैंक का दबाव है की सब्सिडी ख़त्म की जाये किन्तु समस्या सब्सिडी नहीं है समस्या ये है की सही लोगों को सब्सिडी नहीं मिल रही है | महंगाई को सबसे ज्यादा बढ़ाने का काम करता है डीजल की बढ़ती कीमते क्योकि डीजल की कीमत बढने के साथ ही सभी सामानों की माल ढुलाई का खर्च बढ़ता है और एक ही बार में सभी चीजो के दाम बढ़ जाते है |  प्रयास तो ये करना चाहिए था की डीजल की खपत कम किया जाये उसे केवल कुछ जरुरी कामो के लिए प्रयोग किया जाये ना की महँगी बड़ी गाडियों के लिए या बिजली के उत्पादन आदि के लिए , होना तो ये चाहिए था की बाजार में सभी डीजल गाडियों और एक के बाद एक आ रही बड़ी महँगी डीजल गाडियों पर बड़ा टैक्स लगाना जाये  ,( कुछ आर्थिक सलाहकारों ने यही राय दी थी किन्तु सरकार ने उसे माना नहीं क्यों वही बेहतर बता सकती है  )  इससे सरकार की आमदनी भी बढ़ती और लोग डीजल गाड़िया लेने से परहेज करते उसकी खपत कम होती और सरकार पर सब्सिडी का बोझ कम होता , इसी तरह डीजल के अन्य गैर जरुरी प्रयोगों को रोक कर सब्सिडी के बोझ को कम किया जा सकता था,  किन्तु सरकार ने बड़ी कार कंपनियों को नाराज करने के और महँगी गाड़िया खरीदने वालो पर टैक्स का बोझ डालने के बजाये एक आसान रास्ता अपनाया की डीजल की ही कीमत बढ़ा दिया जाये और पूरे देश को हर रूप में इसका बोझ सहने के लिए मजबूर किया जाये |
                                                   
                                                  यही काम उसने गैस पर दी जा रही सब्सिडी पर भी किया , कहने को वो सब्सिडी दे रही है किन्तु जिसे मिलना चाहिए उसे मिल ही नहीं रहा है | साल में  मुझे ६ सिलेंडरो की जरुरत होती है जो मौजूदा नियम के अनुसार मुझे सब्सिडी वाली मिल जाएगी किन्तु बेचारी मेरी गरीब काम वाली बाई जिसे साल में ९ से १२ सिलेंडर की जरुरत है उसे पूरी सब्सिडी नहीं मिल रही है , हाल में ही आर टी आई के जरिये पता चला की एक बड़े उधोगपति , सांसद जिन्हें कोल ब्लोक भी मिला था उन्हें साल में करीब ७०० से ऊपर सब्सिडी वाले सिलेंडर मिल रहे थे , इसे देख कर आप समझ सकते है की योजनाओ में कितनी गड़बड़ी है सब्सिडी असल में मिलना किसे चाहिए था और मिल किसे रही है, क्या कोई उद्योगपति सांसद या जिनकी आय साल में १० लाख रूपये से ऊपर है  इस लायक होता है की उसे एक भी सब्सिडी वाला सिलेन्डर मिले  , लेकिन  जो नियम अभी सरकार ने बनाया है इससे भी उन्हें ६ सब्सिडी वाले सिलेंडर तो मिलेंगे ही,  इस नियम से सिलेंडरो की कालाबाजारी ही ज्यादा होगी , साथ ही ये नियम कम से कम भारत जैसे देश में जहा संयुक्त परिवार की परम्परा है वहा के लिए तो बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है जहा माता पिता बच्चो के साथ ही रहते है , कुछ समय पहले पढ़ा था की अब से एक पते पर बस एक ही गैस कनेक्शन मिलेगा ये बड़े शहरों में एकल परिवारों के लिए तो ठीक है किन्तु छोटे शहरो और गांवो में जहा संयुक्त परिवार है या एक ही घर में कई भाई रहते है वहा  के लिए ये नियम कैसे ठीक होगा  |  समझ नहीं आता की सरकार में बैठे लोग जो नियम कानून बनाते है उन्हें भारतीय परिवेश रहन सहन की कोई भी जानकारी है भी या नहीं | एक टीवी चैनल पर सुना की सरकार कहती है की देश में २८ % लोग ही एल पी जी का प्रयोग करते है और जिसमे से आधे से ज्यादा  शहरी लोग है यदि ये खबर सही है तो आप अंदाजा लगा सकते है की सरकार के पास कितने गलत आंकड़े है और गलत आंकड़ो के साथ वो गलत नियम ही बनाएगी |
            
                                                                   नीति नियम बनाने वाले क्या, सरकार की प्राथमिकता तय करने वाले भी भारत के बारे में और उसकी प्राथमिकता के बारे में कितना जानते है उस पर भी शक होता है,  एक तरफ देश में एक के बाद एक राज्य में कुपोषण की खबरे हमें शर्मसार कर रही थी वही यु एन के रिपोर्ट ने तो हमें पाकिस्तान और अफ़्रीकी देशों से भी गया गुजरा बता दिया कुपोषण के मामले में , जहा सरकार की प्राथमिकता भूख कुपोषण से मर रहे लोगों तक भोजन पहुँचाने की होनी चाहिए थी वहा सरकार किराना में एफ डी आई  लाने के लिए अपनी  सरकार ही दांव पर लगाने के लिए तैयार थी |  सरकार के चिंता का विषय गरीब भूखे लोग नहीं बल्कि वो है जिन्हें कभी अपने खाने पीने की चिंता करने की जरुरत ही नहीं होती है और सरकार उनकी चिंता में मरी जा रही है ( असल में तो उन लोगों की भी चिंता नहीं है असल चिंता तो अमेरिकी कंपनिया उनके हित और अमेरिका में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव है )   | वो सरकार जो खुद कई बार अपने किसानो को उनकी फसलो का ज्यादा दाम देने के बजाये विदेशो से सडा गला अनाज कई गुना महंगे दामो पर खरीद कर लाती है वो उम्मीद कर रही है की कोई विदेश कंपनी उनके किसानो को उचित दाम दे कर रातो रात अमीर बना देगी , मतलब गरीबी हटाओ का उनका नारा कोई विदेशी कंपनी पुरा करेगी , और वो अपना मुनाफा छोड़ कर ऐसा क्यों करेगी इसका जवाब तो सरकार ही दे सकती है | यदि किसानो के भले का तर्क देने वाले भारत के किसानी  का हाल देखते तो ऐसा नहीं कहते , शायद उन्हें पता नहीं है की गरीब वो किसान नहीं है जिनके पास सैकड़ो एकड़ जमीने होती है या जो आधुनिक खेती करते है जिनकी संख्या काफी कम है गरीब वो किसान है जिनके बस दो चार बीघा जमीन है और पैदावार बहुत कम जिनकी संख्या देश में लाखो है , पता नहीं ये वालमार्ट वाले कैसे एक एक छोटे किसान के पास सीधे जा कर उनसे माल खरीदेंगे जो आज तक हमारे भारतीय व्यापारी नहीं कर पाये वो भी सीधे खरीद कर ज्यादा माल कमा सकते थे | ये भी समझ नहीं आता की यदि रिटेल में एफ डी आई इतना ही भारतीय उपभोक्ता के लिए फायदे मंद है और वो महंगाई को जमीन पर ला देगी ( ये काम भी हमारी सरकार नहीं कर पाई वो तो बस तारीख पर तारीख देती रही और महंगाई बढ़ती रही उसके लिए भी आउट सोर्सिंग की जा रही है की २०१४ चुनावों  तक सस्ते माल बेच दो उसके बाद जो चाहे करते रहना कौन पूछने वाला है यहाँ ) तो फिर १० लाख लोगों वाले शहर तक की इसे क्यों सिमित किया जा रहा है इसे पूरे भारत में लागु करना चाहिए था,  केवल बड़े शहर ही क्यों सस्ते समान का लाभ ले , छोटे शहरो गांवो के लोगों को भी इसका फायदा मिलना चाहिए , साथ में जितना माल बेचेंगे उतना हमारे किसान खुशहाल होंगे ( जो वालमार्ट खुद अमेरिका में भी चीनी सस्ते समान बेचता है वो हमारे यहाँ हमारे लोगों से समान ले कर बेचेगा,  ३०% समान भारत से खरीदने की सर्त का क्या हाल होता है वो किस रूप में प्रयोग होता है वो भी दिख जायेगा ) |
                     
                                                                    जो सरकार लोकपाल, महिला आरक्षण  जैसे अनेको बिल को आम सहमती के नाम पर लटकाए रहती है वो इन मुद्दों पर आम सहमती बनाने की जरुरत नहीं समझती है बल्कि अपनी सरकार तक को दांव पर लगा देती है और रातो रात काम होता है नोटिफिकेशन जारी हो जाता है | यदि  सरकार देश से महंगाई , भ्रष्टाचार , कुपोषण आदि समस्याओ को ख़त्म करने की  इतनी इच्छा शक्ति दिखाती तो देश कहा से कहा पहुंचा गया होता | करीब १०-१२ साल पहले एक खबर पढ़ी थी की अमेरिका के एक कस्बे में वालमार्ट अपना स्टोर खोलना चाह रहा था, तो वहा के प्रशासन ने पहले लोगों से राय जानने के लिए इस मुद्दे पर वोटिंग कराई और ९०% लोगों ने स्टोर खोलने का विरोध किया और कहा की वो यहाँ के छोटे स्टोर चला रहे लोगों के हितो को अनदेखा नहीं कर सकते है , क्या भारत में कभी ऐसा हो सकता है , शायद कभी नहीं यहाँ तो हम एक बार वोट देने के बाद अपने हाथ और जबान कटवा लेते है ५ साल के लिए |

 प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उनके  जन्मदिन पर ढेरो बधाई और अपने जन्मदिन के पहले ही वोट के बदले हम जैसो को रिटर्न गिफ्ट में इतना कुछ देने के लिए  धन्यवाद !



चलते चलते

               इधर सरकार ने सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरो की संख्या कम की उधर बाजार में अचानक से राजमा , मटर, बैगन , गोभी की मांग आसमान छूने लगा , असल में लोगो ने महंगे सिलेंडरो को देखते हुए तय किया की वो बाकि के गैस का उत्पादन खुद कर लेंगे !